समकालीन ग़ज़ल
ग़ज़ल पर आधारित पत्रिका
Sunday, September 27, 2009
Friday, July 31, 2009
एक शायर/ डा0 गिरिराजशरण अग्रवाल
एक शायर के इस अंक में डा० गिरिराजशरण अग्रवाल की रचनाएं प्रस्तुत हैं।डा० गिरिराजशरण अग्रवाल का जन्म सन 1944 ई० में सम्भल[उ०प्र०]में हुआ।डा०अग्रवाल की पहली पुस्तक सन 1964 ई० में प्रकशित हुई,तबसे आप द्वारा लिखित और सम्पादित एक सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं,एकांकी,व्यंग्य,ललित निबन्ध और बाल साहित्य के लेखन में संलग्न डा० गिरिराजशरण अग्रवाल वर्तमान में वर्धमान स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बिजनौर में हिन्दी विभाग में रीडर एवं अध्यक्ष हैं।हिन्दी शोध तथा सन्दर्भ साहित्य की दृष्टि से प्रकाशित उनके विशिष्ट ग्रन्थों-`शोध सन्दर्भ’,`सूर साहित्य सन्दर्भ’ और `हिन्दी साहित्य सन्दर्भ कोश’ को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
पुरस्कार एवं सम्मान-उ०प्र० हिन्दी संस्थान,लखनऊ द्वारा व्यंग्यकृति ’बाबू झोलानाथ’[1998] तथा‘राजनीति में गिरगिटवाद’[2002] पुरस्कृत;राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग,नई दिल्ली द्वारा‘मानवाधिकार:दशा और दिशा’[1999] पुरस्कृत।’आओ अतीत में लौट चलें’ पर उ०प्र० हिन्दी संस्थान,लखनऊ द्वारा ’सूर पुरस्कार’ एवं डा० रतनलाल शर्मा स्मृति ट्रस्ट प्रथम पुरस्कार।अखिल भारतीय टेपा सम्मेलन,उज्जैन द्वारा सहस्त्राब्दि सम्मान [2000];अनेक अन्य संस्थाओं द्वारा सम्मानोपाधियाँ प्रदत्त।
पता-16 साहित्य विहार,बिजनौर[उ०प्र०]
फोन-01352-262375,२६३२३२
फुलवारी/पाँच रचनाकारों की रचनायें
1-ग़ज़ल/महेश अग्रवाल
हार किसकी है और किसकी फतह कुछ सोचिये।
जंग है ज्यादा जरुरी या सुलह कुछ सोचिये।
यूं बहुत लम्बी उडा़नें भर रहा है आदमी,
पर कहीं गुम हो गई उसकी सतह कुछ सोचिये।
मौन है इन्सानियत के कत्ल पर इन्साफ-घर,
अब कहाँ होगी भला उस पर जिरह कुछ सोचिये।
अब कहाँ ढूँढें भला अवशेष हम इमान के,
खो गई सम्भावना वाली जगह कुछ सोचिये।
दे न पाये रोटियाँ बारूद पर खर्चा करे,
या खुदा अब बन्द हो ऐसी कलह कुछ सोचिये।
आदमी ’इन्सान’ बनकर रह नहीं पाया यहाँ,
क्या तलाशी जायेगी इसकी वजह कुछ सोचिये।
पता-71,लक्ष्मी नगर,रायसेन रोड
भोपाल-462021 म.प्र.
मो.-9229112607
------------------------------------------
2-ग़ज़ल/कृष्ण सुकुमार
भड़कने की पहले दुआ दी गयी थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गयी थी।
मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूँ,
ये जीने की कैसी अदा दी गयी थी।
बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो,
पलट कर मुझे क्यों सदा दी गयी थी।
अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब
बढा़,शम्मा तब ही बुझा दी गयी थी।
मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
मेरी हैसियत यूँ बता दी गयी थी।
सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया,
मेरी शख्सियत ही भुला दी गयी थी।
गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं,
तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी।
पता-193/7,सोलानी कुंज,
भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान,
रुड़की-247667[उत्तराखण्ड]
--------------------------------
3-ग़ज़ल/माधव कौशिक
खुशबुओं को जुबान मत देना।
धूप को जुबान सायबान मत देना।
अपना सब कुछ तो दे दिया तुमने,
अब किसी को लगान मत देना।
कोई रिश्ता ज़मीन से न रहे,
इतनी ऊँची उडा़न मत देना।
उनके मुंसिफ़,अदालतें उनकी,
देखो,सच्चा बयान मत देना।
जिनके तरकश में कोई तीर नहीं,
उनको साबुत कमान मत देना।
पता-1110,सेक्टर-41-बी
चण्डीगढ़-160036
-----------------------
4-ग़ज़ल/मुफ़लिस लुधियानवी
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला।
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला।
आजमाईश तो गलत-फ़हमी बढा़ देती है,
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला।
दिल तलक जाने का रास्ता भी तो निकला दिल से,
ये शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला।
सरहदें रोक न पायेंगी कभी रिश्तों को,
खुशबुओं पर न कभी कोई भी पहरा निकला।
रोज़ सड़कों पे गरजती है ये दहशत-गर्दी,
रोज़,हर रोज़ शराफत का जनाज़ा निकला।
तू सितम करने में माहिर,मैं सितम सहने में,
ज़िन्दगी!तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला।
यूँ तो बाज़ार की फ़ीकी़-सी चमक सब पर है,
गौर से देखा तो हर शख्स ही तन्हा निकला।
पता-614/33 शाम नगर,
लुधियाना-141001
---------------------------------
5-ग़ज़ल/गिरधर गोपाल गट्टानी
किसने रौंदी ये फुलवारियाँ।
मेरी केशर-पगी क्यारियाँ।
हमको कैसा पडो़सी मिला,
दे रहा सिर्फ दुश्वारियाँ।
तेग की धार पर टाँग दी,
नौनिहालों की किलकारियाँ।
हमको कैसे मसीहा मिले,
बढ़ रही रोज़ बीमारियाँ।
छोड़िये भी, न अब कीजिये,
दुश्मनों की तरफ़दारियाँ।
पता-मातृ छाया,
मुख्य मार्ग,बैरसिया,
भोपाल[म.प्र.]
हार किसकी है और किसकी फतह कुछ सोचिये।
जंग है ज्यादा जरुरी या सुलह कुछ सोचिये।
यूं बहुत लम्बी उडा़नें भर रहा है आदमी,
पर कहीं गुम हो गई उसकी सतह कुछ सोचिये।
मौन है इन्सानियत के कत्ल पर इन्साफ-घर,
अब कहाँ होगी भला उस पर जिरह कुछ सोचिये।
अब कहाँ ढूँढें भला अवशेष हम इमान के,
खो गई सम्भावना वाली जगह कुछ सोचिये।
दे न पाये रोटियाँ बारूद पर खर्चा करे,
या खुदा अब बन्द हो ऐसी कलह कुछ सोचिये।
आदमी ’इन्सान’ बनकर रह नहीं पाया यहाँ,
क्या तलाशी जायेगी इसकी वजह कुछ सोचिये।
पता-71,लक्ष्मी नगर,रायसेन रोड
भोपाल-462021 म.प्र.
मो.-9229112607
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2-ग़ज़ल/कृष्ण सुकुमार
भड़कने की पहले दुआ दी गयी थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गयी थी।
मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूँ,
ये जीने की कैसी अदा दी गयी थी।
बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो,
पलट कर मुझे क्यों सदा दी गयी थी।
अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब
बढा़,शम्मा तब ही बुझा दी गयी थी।
मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
मेरी हैसियत यूँ बता दी गयी थी।
सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया,
मेरी शख्सियत ही भुला दी गयी थी।
गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं,
तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी।
पता-193/7,सोलानी कुंज,
भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान,
रुड़की-247667[उत्तराखण्ड]
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3-ग़ज़ल/माधव कौशिक
खुशबुओं को जुबान मत देना।
धूप को जुबान सायबान मत देना।
अपना सब कुछ तो दे दिया तुमने,
अब किसी को लगान मत देना।
कोई रिश्ता ज़मीन से न रहे,
इतनी ऊँची उडा़न मत देना।
उनके मुंसिफ़,अदालतें उनकी,
देखो,सच्चा बयान मत देना।
जिनके तरकश में कोई तीर नहीं,
उनको साबुत कमान मत देना।
पता-1110,सेक्टर-41-बी
चण्डीगढ़-160036
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4-ग़ज़ल/मुफ़लिस लुधियानवी
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला।
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला।
आजमाईश तो गलत-फ़हमी बढा़ देती है,
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला।
दिल तलक जाने का रास्ता भी तो निकला दिल से,
ये शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला।
सरहदें रोक न पायेंगी कभी रिश्तों को,
खुशबुओं पर न कभी कोई भी पहरा निकला।
रोज़ सड़कों पे गरजती है ये दहशत-गर्दी,
रोज़,हर रोज़ शराफत का जनाज़ा निकला।
तू सितम करने में माहिर,मैं सितम सहने में,
ज़िन्दगी!तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला।
यूँ तो बाज़ार की फ़ीकी़-सी चमक सब पर है,
गौर से देखा तो हर शख्स ही तन्हा निकला।
पता-614/33 शाम नगर,
लुधियाना-141001
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5-ग़ज़ल/गिरधर गोपाल गट्टानी
किसने रौंदी ये फुलवारियाँ।
मेरी केशर-पगी क्यारियाँ।
हमको कैसा पडो़सी मिला,
दे रहा सिर्फ दुश्वारियाँ।
तेग की धार पर टाँग दी,
नौनिहालों की किलकारियाँ।
हमको कैसे मसीहा मिले,
बढ़ रही रोज़ बीमारियाँ।
छोड़िये भी, न अब कीजिये,
दुश्मनों की तरफ़दारियाँ।
पता-मातृ छाया,
मुख्य मार्ग,बैरसिया,
भोपाल[म.प्र.]
Wednesday, June 3, 2009
एक शायर/विनय मिश्र
जैसा कि आप जानते हैं कि एक शायर स्तम्भ में एक ही ग़ज़लकार की रचनायें हर माह प्रकाशित होंगी।आज सबसे पहले विनय मिश्र की ग़ज़लों से इस स्तम्भ की शुरुआत कर रहा हूँ।
विनय मिश्र वर्तमान दौर में ग़ज़ल विधा के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं और ग़ज़ल के लिये पूरे मनोयोग से जुडे़ हुए हैं।
जीवन परिचय-जन्म तिथि-१२ अगस्त १९६६,शिक्षा-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी से एम०ए०,पी०एच०डी०[हिन्दी],देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लों,कविताओं और आलेखों का प्रकाशन,’शब्द कारखाना’[हिन्दी त्रैमासिक]के ग़ज़ल अंक के अतिथि सम्पादक,सम्प्रति-राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय अलवर[राज०]के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
१-नहीं यूँ ही हवा बेकल है मुझमें-जीवन परिचय-जन्म तिथि-१२ अगस्त १९६६,शिक्षा-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी से एम०ए०,पी०एच०डी०[हिन्दी],देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लों,कविताओं और आलेखों का प्रकाशन,’शब्द कारखाना’[हिन्दी त्रैमासिक]के ग़ज़ल अंक के अतिथि सम्पादक,सम्प्रति-राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय अलवर[राज०]के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
नहीं यूँ ही हवा बेकल है मुझमें।
है कोई बात जो हलचल है मुझमें।
सुनाई दे रही है चीख कोई,
ये किसकी जिन्दगी घायल है मुझमें।
बहुत देखा बहुत कुछ देखना है,
अभी मीलों हरा जंगल है मुझमें।
लगाये साजिशों के पेड़ किसने,
फला जो नफ़रतों का फल है मुझमें।
बुझाई प्यास की भी प्यास जिसने,
अभी उस ज़िन्दगी का जल है मुझमें।
मेरी हर साँस है तेरी बदौलत,
तू ही तो ऐ हवा पागल है मुझमें।
सवालों में लगी हैं इतनी गाँठें,
कहूँ कैसे कि कोई हल है मुझमें।
दिनोंदिन और धँसती है ग़रीबी,
यूँ बढ़ता कर्ज़ का दलदल है मुझमें।
हवाओं में बिखरता जा रहा हूँ,
कहूँ कैसे सुरक्षित कल है मुझमें।
२-रौशनी है बुझी-बुझी अबतक-
रौशनी है बुझी-बुझी अबतक।
गुल खिलाती है तीरगी अबतक।
एक छोटी-सी चाह मिलने की,
वो भी पूरी नहीं हुई अबतक।
बात करता था जो जमाने की,
वो रहा खुद से अजनबी अबतक।
देखकर तुमको जितनी पाई थी,
उतनी पाई न फ़िर खुशी अबतक।
मौत को जीतने की खातिर ही,
दाँव पर है ये ज़िन्दगी अबतक।
मेरा का़तिल था मेरे अपनों में,
मुझको कोई ख़बर न थी अबतक।
३-गिरने न दिया मुझको हर बार संभाला है-
गिरने न दिया मुझको हर बार संभाला है।
यादों का तेरी कितना अनमोल उजाला है।
वो कैसे समझ पाये दुनिया की हकीक़त को,
सांचे में उसे अपने जब दुनिया ने ढाला है।
ये दिन भी परेशाँ है ये रात परेशाँ है,
लोगों ने सवालों को इस तरह उछाला है।
इंसानियत का मन्दिर अबतक न बना पाये,
वैसे तो हर इक जानिब मस्जिद है शिवाला है।
सपनों में भी जीवन है फुटपाथ पे सोते हैं,
जीने का हुनर अपना सदियों से निराला है।
सब एक खुदा के ही बन्दे हैं जहाँ भर में,
नज़रों में मेरी कोई अदना है न आला है।
गंगा भी नहा आये तन धुल भी गया लेकिन,
मन पापियों का अबतक काले का ही काला है।
४-एक सुबह की भरी ताज़गी अब भी है-
एक सुबह की भरी ताज़गी अब भी है।
इस उजास में एक नमी-सी अब भी है।
ये दुनिया आज़ाद हुई कैसे कह दूँ,
ये दुनिया तो डर की मारी अब भी है।
पेड़ बहुत हैं लेकिन सायेदार नहीं,
धूप सफ़र में थी जो तीखी अब भी है।
उजड़ गया है मंजर खुशियों का लेकिन,
इक चाहत यादों में बैठी अब भी है।
कान लगाकर इनसे आती चीख सुनो,
इन गीतों में घायल कोई अब भी है।
हर पल दुविधाओं में रहती है लेकिन,
विश्वासों से भरी ज़िन्दगी अब भी है।
५-सूरजमुखी के फूल-
पूरब की ओर मुँह किये सूरजमुखी के फूल।
होते ही भोर खिल उठे सूरजमुखी के फूल।
उड़ने लगीं हवाइयाँ चेहरे पे ओस के,
जब खिलखिलाके हँस पड़े सूरजमुखी के फूल।
तुम दिन की बात करते हो लेकिन मेरे लिये,
रातों के भी हैं हौसले सूरजमुखी के फूल।
वो भी इन्हीं की याद में डूबा हुआ मिला,
जिसको पुकारते हैं ये सूरजमुखी के फूल।
सूरज का साथ देने की हिम्मत लिये हुए,
धरती की गोद में पले सूरजमुखी के फूल।
मुश्किल की तेज धूप का है सामना मगर,
जीते हैं सिर उठा के ये सूरजमुखी के फूल |
सूरज वो आसमान का मुझमें उतर पडा़,
इक बात ऐसी कह गये सूरजमुखी के फूल।
Thursday, May 21, 2009
फुलवारी/पाँच रचनाकारों की रचनायें
फुलवारी के इस अंक में प्रस्तुत है इन ग़ज़लकारों की रचनायें-
१-जहीर कुरेशी की ग़ज़ल-
तिमिर की पालकी निकली अचानक।
घरों से गुल हुई बिजली अचानक।
तपस्या भंग-सी लगने लगी है,
कहाँ से आ गयी ’तितली’ अचानक।
अभी सामान तक खोला नहीं था,
यहाँ से भी हुई बदली अचानक।
समझ में आ रहा है स्वर पिता का,
विमाता कर गई चुगली अचानक।
तुम्हारी साम्प्रदायिक-सोच सुनकर,
मुझे आने लगी मितली अचानक।
ये पापी पेट भरने की सजा है,
नचनिया, बन गई तकली अचानक।
मछेरे की पकड़ से छूटते ही,
नदी में जा गिरी मछली अचानक।
पता-समीर काटेज,बी-२१,सूर्य नगर
शब्द प्रताप आश्रम के पास,
ग्वालियर-४७४०१२[म०प्र०]
मोबाइल न०-०९४२५७९०५६५
२-रामकुमार 'कृषक' की ग़ज़ल-
हम हुए आजकल नीम की पत्तियाँ।
लाख हों रोग हल नीम की पत्तियाँ।
गीत गोली हुए शेर शीरीं नहीं,
कह रहे हम ग़ज़ल नीम की पत्तियाँ।
खून का घूँट हम खून वे पी रहे,
स्वाद देंगी बदल नीम की पत्तियाँ।
सुर्ख संजीवनी हों सभी के लिये,
हो रही खुद खरल नीम की पत्तियाँ।
आग की लाग हैं सूखते बाँसवन,
अब न होंगी सजल नीम की पत्तियाँ।
वक्त हैरान हिलती जड़ें बरगदी,
सब कहीं बादख़ल नीम की पत्तियाँ।
एक छल है गुलाबी फसल देश में,
दरअसल हैं असल नीम की पत्तियाँ।
पता-सी-३/५९ नागार्जुन नगर,
सादतपुर विस्तार,
दिल्ली-११००९४
३-अनु जसरोटिया की ग़ज़ल-
धूप में मेरे साथ चलता था।
वो तो मेरा ही अपना साया था।
वो ज़माना भी कितना अच्छा था,
मिलना-जुलना था आना-जाना था।
यक-बयक माँ की आँख भर आई,
हाल बेटे ने उसका पूछा था।
दिल मचलता है चाँद की खातिर,
ऐसा नादां भी इसको होना था।
उसको आना था ऐसे वक्त कि जब,
कोई ग़फ़लत की नींद सोता था।
दिल है बेचैन उसके जाने पर,
बेवफाई ही उसका पेशा था |
पता-इन्दिरा कालोनी,
कठुआ-१८४१०१
[जम्मू और कश्मीर]
४-दरवेश भारती की ग़ज़ल-
धन की लिप्सा ये रंग लायेगी।
आपसी फ़ासिले बढा़एगी।
तेरे जीवन का दम्भ टूटेगा,
ऐ ख़िज़ां जब बहार आएगी।
मुल्क में क्या बचेगा कुछ यारों,
बाड़ जब खुद ही खेत खाएगी।
इन उनींदे अनाथ बच्चों को,
लोरियाँ दे हवा सुलाएगी।
अणुबमों से सज गया संसार,
कैसे कुदरत इसे बचाएगी।
हम हैं ’दरवेश’ हमको ये दुनिया,
क्या रुलाएगी,क्या हँसाएगी।
पता-पोस्ट बाक्स न०-४५,
रोहतक -१२४००१[हरियाणा]
मोबाइल न०-०९२६८७९८९३०
५-शिवकुमार ’पराग’ की ग़ज़ल-
ऐसी कविता प्यारे लिख।
जो मन को झंकारे लिख।
लौट के धरती पर आ जा,
अब ना चाँद सितारे लिख।
हवा-हवाई ही मत रह,
कुछ तो ठोस-करारे लिख।
पाला मार रहा सबको,
लिख,जलते अंगारे लिख।
दुरभिसंधियाँ फैल रहीं,
इनके वारे-न्यारे लिख।
समझौतों की रुत में भी,
खुद्दारी ललकारे लिख।
सिर पर है बाज़ार चढा़,
जो यह ज्वार उतारे लिख।
जहाँ-जहाँ अँधियारे हैं,
वहाँ-वहाँ उजियारे लिख।
हार-जीत जो हो सो हो,
लेकिन मन ना हारे लिख।
पता-म०न० ५/१४० एस-१०
संजय नगर[रमरेपुर],अकथा,
पहड़िया,वाराणसी[उ०प्र०]
मो०न०-९४१५६९४३६१
१-जहीर कुरेशी की ग़ज़ल-
तिमिर की पालकी निकली अचानक।
घरों से गुल हुई बिजली अचानक।
तपस्या भंग-सी लगने लगी है,
कहाँ से आ गयी ’तितली’ अचानक।
अभी सामान तक खोला नहीं था,
यहाँ से भी हुई बदली अचानक।
समझ में आ रहा है स्वर पिता का,
विमाता कर गई चुगली अचानक।
तुम्हारी साम्प्रदायिक-सोच सुनकर,
मुझे आने लगी मितली अचानक।
ये पापी पेट भरने की सजा है,
नचनिया, बन गई तकली अचानक।
मछेरे की पकड़ से छूटते ही,
नदी में जा गिरी मछली अचानक।
पता-समीर काटेज,बी-२१,सूर्य नगर
शब्द प्रताप आश्रम के पास,
ग्वालियर-४७४०१२[म०प्र०]
मोबाइल न०-०९४२५७९०५६५
२-रामकुमार 'कृषक' की ग़ज़ल-
हम हुए आजकल नीम की पत्तियाँ।
लाख हों रोग हल नीम की पत्तियाँ।
गीत गोली हुए शेर शीरीं नहीं,
कह रहे हम ग़ज़ल नीम की पत्तियाँ।
खून का घूँट हम खून वे पी रहे,
स्वाद देंगी बदल नीम की पत्तियाँ।
सुर्ख संजीवनी हों सभी के लिये,
हो रही खुद खरल नीम की पत्तियाँ।
आग की लाग हैं सूखते बाँसवन,
अब न होंगी सजल नीम की पत्तियाँ।
वक्त हैरान हिलती जड़ें बरगदी,
सब कहीं बादख़ल नीम की पत्तियाँ।
एक छल है गुलाबी फसल देश में,
दरअसल हैं असल नीम की पत्तियाँ।
पता-सी-३/५९ नागार्जुन नगर,
सादतपुर विस्तार,
दिल्ली-११००९४
३-अनु जसरोटिया की ग़ज़ल-
धूप में मेरे साथ चलता था।
वो तो मेरा ही अपना साया था।
वो ज़माना भी कितना अच्छा था,
मिलना-जुलना था आना-जाना था।
यक-बयक माँ की आँख भर आई,
हाल बेटे ने उसका पूछा था।
दिल मचलता है चाँद की खातिर,
ऐसा नादां भी इसको होना था।
उसको आना था ऐसे वक्त कि जब,
कोई ग़फ़लत की नींद सोता था।
दिल है बेचैन उसके जाने पर,
बेवफाई ही उसका पेशा था |
पता-इन्दिरा कालोनी,
कठुआ-१८४१०१
[जम्मू और कश्मीर]
४-दरवेश भारती की ग़ज़ल-
धन की लिप्सा ये रंग लायेगी।
आपसी फ़ासिले बढा़एगी।
तेरे जीवन का दम्भ टूटेगा,
ऐ ख़िज़ां जब बहार आएगी।
मुल्क में क्या बचेगा कुछ यारों,
बाड़ जब खुद ही खेत खाएगी।
इन उनींदे अनाथ बच्चों को,
लोरियाँ दे हवा सुलाएगी।
अणुबमों से सज गया संसार,
कैसे कुदरत इसे बचाएगी।
हम हैं ’दरवेश’ हमको ये दुनिया,
क्या रुलाएगी,क्या हँसाएगी।
पता-पोस्ट बाक्स न०-४५,
रोहतक -१२४००१[हरियाणा]
मोबाइल न०-०९२६८७९८९३०
५-शिवकुमार ’पराग’ की ग़ज़ल-
ऐसी कविता प्यारे लिख।
जो मन को झंकारे लिख।
लौट के धरती पर आ जा,
अब ना चाँद सितारे लिख।
हवा-हवाई ही मत रह,
कुछ तो ठोस-करारे लिख।
पाला मार रहा सबको,
लिख,जलते अंगारे लिख।
दुरभिसंधियाँ फैल रहीं,
इनके वारे-न्यारे लिख।
समझौतों की रुत में भी,
खुद्दारी ललकारे लिख।
सिर पर है बाज़ार चढा़,
जो यह ज्वार उतारे लिख।
जहाँ-जहाँ अँधियारे हैं,
वहाँ-वहाँ उजियारे लिख।
हार-जीत जो हो सो हो,
लेकिन मन ना हारे लिख।
पता-म०न० ५/१४० एस-१०
संजय नगर[रमरेपुर],अकथा,
पहड़िया,वाराणसी[उ०प्र०]
मो०न०-९४१५६९४३६१
समकालीन ग़ज़ल
समकालीन ग़ज़ल,ग़ज़ल पर केन्द्रित एक प्रतिनिधि पत्रिका है जिसमें जून २००९ से हर माह अपने समय के सरोकारों से जुडी़ हुई रचनायें ही प्रकाशित होंगी। इसमें शामिल रचनाकारों के लिये ये जरूरी है कि वे रचनायें भेजते समय ग़ज़ल के शिल्प और छन्दानुशासन का पूरा ध्यान रखें।
सभी ग़ज़लकार मित्रों से यह आग्रह है कि वे अपनी उम्दा रचनायें ई मेल द्वारा - pbchaturvedi@in.com पर भेज सकते हैं|नोट:-एक शायर स्तम्भ में एक ही ग़ज़लकार की कई रचनायें हर माह प्रकाशित होंगी। इसमें शामिल होने के लिये ये आवश्यक है कि ग़ज़लकार अपनी दस मौलिक रचनाओं के साथ अपना एक फ़ोटो एवं संक्षिप्त जीवन परिचय अवश्य प्रेषित करें।
फ़ुलवारी स्तम्भ में कई ग़ज़लकारों की एक-एक रचना प्रकाशित होंगी।चुनिन्दा शेर स्तम्भ में चुने हुए कुछ ऐसे शेर प्रकाशित होंगे,जो अपने आप में पूर्ण होंगे।
विभिन्न शायरों के कुछ चुनिन्दा शेर-
१-विज्ञान व्रत -
मैं कुछ बेहतर ढूढ़ रहा हूँ।
घर में हूँ घर ढूढ़ रहा हूँ।
२-अश्वघोष-
मुझमें एक डगर ज़िन्दा है।
यानी एक सफ़र ज़िन्दा है।
३-ज्ञान प्रकाश विवेक-
किसी के तंज़ का देता न था जवाब मगर,
ग़रीब आदमी दिल में मलाल रखता था।
४-जयकृष्ण राय’तुषार’-
भँवर में घूमती कश्ती के हम ऐसे मुसाफ़िर हैं,
न हम इस पार आते हैं न हम उस पार जाते हैं।
५-बालस्वरूप राही-
सीधे-सच्चे लोगों के दम पर ही दुनिया चलती है,
हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे।
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