एक शायर के इस अंक में डा० गिरिराजशरण अग्रवाल की रचनाएं प्रस्तुत हैं।डा० गिरिराजशरण अग्रवाल का जन्म सन 1944
ई० में सम्भल[
उ०प्र०]
में हुआ।डा०अग्रवाल की पहली पुस्तक सन 1964
ई० में प्रकशित हुई,
तबसे आप द्वारा लिखित और सम्पादित एक सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं,
एकांकी,
व्यंग्य,
ललित निबन्ध और बाल साहित्य के लेखन में संलग्न डा० गिरिराजशरण अग्रवाल वर्तमान में वर्धमान स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
बिजनौर में हिन्दी विभाग में रीडर एवं अध्यक्ष हैं।हिन्दी शोध तथा सन्दर्भ साहित्य की दृष्टि से प्रकाशित उनके विशिष्ट ग्रन्थों-`
शोध सन्दर्भ’,`
सूर साहित्य सन्दर्भ’
और `
हिन्दी साहित्य सन्दर्भ कोश’
को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।पुरस्कार एवं सम्मान-
उ०प्र० हिन्दी संस्थान,
लखनऊ द्वारा व्यंग्यकृति ’
बाबू झोलानाथ’[1998]
तथा‘
राजनीति में गिरगिटवाद’[2002]
पुरस्कृत;
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग,
नई दिल्ली द्वारा‘
मानवाधिकार:
दशा और दिशा’[1999]
पुरस्कृत।’
आओ अतीत में लौट चलें’
पर उ०प्र० हिन्दी संस्थान,
लखनऊ द्वारा ’
सूर पुरस्कार’
एवं डा० रतनलाल शर्मा स्मृति ट्रस्ट प्रथम पुरस्कार।अखिल भारतीय टेपा सम्मेलन,
उज्जैन द्वारा सहस्त्राब्दि सम्मान [2000];
अनेक अन्य संस्थाओं द्वारा सम्मानोपाधियाँ प्रदत्त।पता-16
साहित्य विहार,
बिजनौर[
उ०प्र०]
फोन-01352-262375,
२६३२३२
1-ग़ज़ल/महेश अग्रवाल
हार किसकी है और किसकी फतह कुछ सोचिये।
जंग है ज्यादा जरुरी या सुलह कुछ सोचिये।
यूं बहुत लम्बी उडा़नें भर रहा है आदमी,
पर कहीं गुम हो गई उसकी सतह कुछ सोचिये।
मौन है इन्सानियत के कत्ल पर इन्साफ-घर,
अब कहाँ होगी भला उस पर जिरह कुछ सोचिये।
अब कहाँ ढूँढें भला अवशेष हम इमान के,
खो गई सम्भावना वाली जगह कुछ सोचिये।
दे न पाये रोटियाँ बारूद पर खर्चा करे,
या खुदा अब बन्द हो ऐसी कलह कुछ सोचिये।
आदमी ’इन्सान’ बनकर रह नहीं पाया यहाँ,
क्या तलाशी जायेगी इसकी वजह कुछ सोचिये।
पता-71,लक्ष्मी नगर,रायसेन रोड
भोपाल-462021 म.प्र.
मो.-9229112607
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2-ग़ज़ल/कृष्ण सुकुमार
भड़कने की पहले दुआ दी गयी थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गयी थी।
मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूँ,
ये जीने की कैसी अदा दी गयी थी।
बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो,
पलट कर मुझे क्यों सदा दी गयी थी।
अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब
बढा़,शम्मा तब ही बुझा दी गयी थी।
मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
मेरी हैसियत यूँ बता दी गयी थी।
सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया,
मेरी शख्सियत ही भुला दी गयी थी।
गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं,
तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी।
पता-193/7,सोलानी कुंज,
भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान,
रुड़की-247667[उत्तराखण्ड]
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3-ग़ज़ल/माधव कौशिक
खुशबुओं को जुबान मत देना।
धूप को जुबान सायबान मत देना।
अपना सब कुछ तो दे दिया तुमने,
अब किसी को लगान मत देना।
कोई रिश्ता ज़मीन से न रहे,
इतनी ऊँची उडा़न मत देना।
उनके मुंसिफ़,अदालतें उनकी,
देखो,सच्चा बयान मत देना।
जिनके तरकश में कोई तीर नहीं,
उनको साबुत कमान मत देना।
पता-1110,सेक्टर-41-बी
चण्डीगढ़-160036
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4-ग़ज़ल/मुफ़लिस लुधियानवी
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला।
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला।
आजमाईश तो गलत-फ़हमी बढा़ देती है,
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला।
दिल तलक जाने का रास्ता भी तो निकला दिल से,
ये शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला।
सरहदें रोक न पायेंगी कभी रिश्तों को,
खुशबुओं पर न कभी कोई भी पहरा निकला।
रोज़ सड़कों पे गरजती है ये दहशत-गर्दी,
रोज़,हर रोज़ शराफत का जनाज़ा निकला।
तू सितम करने में माहिर,मैं सितम सहने में,
ज़िन्दगी!तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला।
यूँ तो बाज़ार की फ़ीकी़-सी चमक सब पर है,
गौर से देखा तो हर शख्स ही तन्हा निकला।
पता-614/33 शाम नगर,
लुधियाना-141001
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5-ग़ज़ल/गिरधर गोपाल गट्टानी
किसने रौंदी ये फुलवारियाँ।
मेरी केशर-पगी क्यारियाँ।
हमको कैसा पडो़सी मिला,
दे रहा सिर्फ दुश्वारियाँ।
तेग की धार पर टाँग दी,
नौनिहालों की किलकारियाँ।
हमको कैसे मसीहा मिले,
बढ़ रही रोज़ बीमारियाँ।
छोड़िये भी, न अब कीजिये,
दुश्मनों की तरफ़दारियाँ।
पता-मातृ छाया,
मुख्य मार्ग,बैरसिया,
भोपाल[म.प्र.]